दसवाँ सूक्त
उपलब्धि प्राप्त करनेवाली तेजस्वी
आत्माओंका सूक्त
[ ऋषि दिव्य ज्वालारूप अग्निदेवसे प्रार्थना करता है कि वह शक्ति, ज्ञान तथा आनन्दकी त्रिविध सामर्थ्यके द्वारा उसके अन्दर कार्य करे । वह हमारी मानवजातिमें उन ज्ञानसंपन्न तेजस्वी आत्माओंका वर्णन करता है जो सत्य और विशालताकी उपलब्धि करती हैं । वे दिव्य प्रभुत्वकी ओर आरोहण करनेके लिए हमारे अन्दर कार्यरत इस परात्पर भागवत चित्-शक्तिकी ज्वलन्त और अत्यधिक शक्तिसंपन्न ज्वाला-रश्मियाँ हैं । कई आत्माएँ ऐसी बन चुकी हैं, अन्य अभीतक अवरुद्ध हैं, परन्तु विकसित हो रही हैं । ऋषि चाहता है कि अग्नि स्तुति द्वारा अधिकाधिक सम्पुष्ट होता जाय ताकि समृद्ध एवं समग्र-बोधात्मक सार्वभौमिकताकी ओर सभी प्रगति कर सकें । ] १ अग्न ओजिष्ठमा भर द्युम्नमस्मभ्यमध्रिगो । प्र नो राया परीणसा रत्सि बाजाय पन्थाम् ।।
(अग्ने) हे ज्वाला ! (अध्रिगो) हमारी सीमित सत्तामें रहनेवाली रश्मि ! (ओजिष्ठ द्युम्नं) समग्र शक्तिसे परिपूर्ण प्रकाशकों (अस्मभ्यम आ भर) हमारे लिए ले आ । (परीणसा राया) सब ओरसे व्यापनेवाले परम आनन्दके द्वारा (नः वाजाय पन्थाम्) हमारे ऐश्वर्यकी परिपूर्णताके मार्गको (प्र रत्सि) आगे-आगे चीरकर बना । २ त्वं नो अग्ने अद्भुत क्रत्वा दक्षस्थ मंहना । त्वे असुर्यमारुहत् क्राणा मित्रो न यज्ञिय: ।।
(अग्ने) हे ज्वाला ! (त्वम् अद्भुत:) तू सर्वोच्च और अद्भुत है । तू ही (क्रत्वा) संकल्पकी शक्तिसे (नः) हमारे अन्दर (दक्षस्य मंहना) विवेकबलकी महानता बन गया है । (त्वे) तुझमें ही (यज्ञिय: मित्र:) ७४ सबको समस्वर करनेवाला यज्ञ-साधक मित्र1 (क्राणा) कार्यको सम्पन्न करता है और (असुर्यम्2 आरुहत्) दिव्य आधिपत्यकी ओर आरोहण करता है । ३ त्वं नो अग्न एषां गयं पुष्टिं च वर्धय । ये स्तोमेभि: प्र सूरयो नरो मघान्यानशुः ।।
(अग्ने) हे शक्तिस्वरूप देव ! (त्वम्) तू (एषां गयं पुष्टि च) इनकी प्रगति3 और विकासकी (वर्धय) वृद्धि कर (ये) जो (सूरय: नर:) ज्ञानसम्पन्न भव्य आत्माएँ हैं और (स्तोमेभि:) तेरे लिये अपने स्तोत्रोंके द्वारा (न: मघानि प्र आनशु:) हमारी पूर्णताओंको हमारे लिए प्राप्त करते हैं । ४ ये अग्ने चन्द्र ते गिर: शुम्भन्त्यश्वराधस: । शुष्मेभि: शुष्मिणो नरो दिवश्चिद् येषां बृहत् सुकीर्तिर्बोधति त्मना ।।
(अग्ने) हे शक्तिमय देव ! (चन्द्र) हे आगदस्वरूप ! (ते) ये हैं वे (ये अश्वराघस:) जो जीवनकी वेगशील शक्तियोंकी सुखपूर्ण समृद्धिसे युक्त हैं, (गिर: शुष्मिण: नरः) जो चिन्तनके शब्दोंको सुरवपूर्ण प्रकाशकी ओर मोड़ते हैं, (शुष्मेभि: शुष्मिण: नर:) जिनकी आत्माएँ वीरोचित शक्तिसे शक्तिशाली हैं, (येषां) जिनके लिये (दिव:) द्युलोकमें4 भी (बृहत्) विशालता हे । (सुकीर्ति: त्मना बोधति) इनके लिए इस अग्निकी पूर्ण क्रिया अपने-आप ही ज्ञानके प्रति जागृत हो जाती है । ५ तव त्ये अग्ने अर्चयो भ्राजन्तो यन्ति धृष्णुया । परिज्मानो न विद्युत: स्वानो रथो न वाजयुः ।। _______________ 1.मित्र--प्रेमका अधिपति जो हमारे अन्दर दिव्य प्रयासकी क्रियाओंमें समस्वरताके तत्त्वका सूत्रपात करता है और इस प्रकार हमारी प्रगतिकी सब दिशाओं, हमारे यज्ञके सभी तंतुओंको संयुक्त करता चलता है जबतक कि ज्ञान, शक्ति और आनन्दकी सर्वोत्कृष्ट एकतामें कार्य सिद्ध नहीं हो जाता । 2.असुर्यम्-देव-शक्ति, भगवान्की प्रभुत्वकारी कार्यशक्ति, हमारे अन्दर स्थित दिव्य ''असुर'' । 3.या ''उपलब्धि'' । 4.अर्थात् विशुद्ध मानसिक सत्ताके शिखरोंपर जहाँ मन:सत्ता अतिचेतनकी विशालताके साथ भेंट करती है तथा उसमें प्रवेश कर जाती है । ७५ (अग्ने) हे शक्तिमय देव ! (तव त्ये अर्चय:) ये हैं तेरी ज्यालामयी किरणें जो (धृष्णुया भ्राजन्त: यन्ति) प्रचंड रूपसे जाज्वल्यमान होती हुई गति कर रही हैं । ये (परिज्मान: विद्युत: न) उन बिजलियोंकी तरह हैं जो सब दिशाओंमें दौड़ती है, (स्वान: रथ: न) ध्वनि करते हुए उस रथकी तरह हैं जो (वाजयुः) ऐश्वर्य-परिपूर्णताकी ओर द्रुत वेगसे जाता है । ६ नू नो अग्न ऊतये सबाधसश्च रातये । अस्माकासश्च सूरयो विश्वा आशास्तरीषणि ।।
(अग्ने) हे शक्तिस्वरूप देव ! (नु) अब (नः सबाधस:) हममेंसे जो आक्रान्त और अवरुद्ध हैं वे सभी (ऊतये रातये च) विस्तार और आत्माकी समृद्धिको समान रूपसे प्राप्त करें । (च) और (अस्माकास: सूरय:) हमारी ये ज्ञानसंपन्न तेजोमय आत्माएँ (विश्वा: आशा: तरीषणि) सब क्षेत्रों1को लाँघकर पार कर जाएँ । ७ त्वं नो अग्ने अङ्गि:र: स्तुत: स्तवान आ भर । होतर्विभ्वासह रयिं स्तोतृभ्य: स्तवसे च न उतैधि पृत्सु नो वृधे ।।
(अग्ने अङ्गिर:) हे अग्निशक्ति ! हे अमोघ-शक्तिमयी आत्मा ! जब (त्वं स्तवान:) तेरी स्तुति हो रही हो और जब (स्तुत:) तेरी स्तुति हो चुके तब (होत:) हे समर्पणके वाहक पुरोहित ! (न:) हमारे लिए (स्तोतृभ्य: स्तवसे च) एवं उन सबके लिए जो तेरी स्तुति करते हैं तथा तेरे पुन:- स्तवनके लिए भी (विभ्व-सहं रयिम् आ भर) सर्वव्यापक शक्तिशालिताका परम आनन्द2 ले आ । (उत) और (नः पुत्सु एधि) हमारे संग्रामोंमें हमारे साथ अग्रसर हो, (नः वृधे) ताकि हम अभिवृद्धिको प्राप्त हों । _____________ 1. क्षेत्र हैं मानसिक सत्ताके द्युलोकोंके प्रदेश जिन सबको हमें पहले अपनी चेतनामें आलिंगित करना और फिर पार कर जाना होता है । 2. दिव्य उपलब्धियोंसे भरपूर आत्मामें वह ऐश्वर्य एवं प्राचुर्य जो उसका आध्यात्मिक वैभव या आनन्द है, दिव्य आनन्दके अनन्त भंडारकी एक प्रतिमूर्ति है और जिसके द्वारा वह अपनी सत्ताकी सदा महत्तर और अधिक सुसंपन्न विशालताकी ओर प्रगति करता है ।n ७६
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